Abstract
भारतीय परम्परा में योग दर्शन को अत्यन्त महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। वेद, पुराण, उपनिषद्, आरण्यक ग्रन्थों से लेकर श्रीमद्भगवद्गीता तक सर्वत्र योगविद्या का अप्रतिम प्रभाव सहज ही दृष्टिगोचर होता है । न्याय-वैशेषिकादि षड्दर्शन सैद्धान्तिक मतभेद रखते हुए भी यौगिक प्रणाली को अंगीकार करते हैं। शङ्कराचार्य जैसे महान वेदान्ती साङ्ख्य के सिद्धान्तों का खण्डन करते हुए भी "....न शक्यते साहसमात्रेण प्रत्याख्यातुम् ।"कहकर योग का विरोध नहीं करते। प्रस्तुत शोध निबन्ध में योग की इसी विशिष्टता तथा इसके पीछे छिपे कारणों पर प्रकाश डाला गया है ।